ना जाने समय कैसी ईम्तहान लेती है
अपनों से दुर कर अपनों की पहचान लेती है
मैं यहाँ गैरों की भीड़ में अपनों की तलाश करता हुँ
दुर तक जाती है नजरें और लौट आती
कहता है दिल और कहता है मन
गैरों में भी कोई अपना मिला है क्या
अपनों की आँसू कोई अपना ही समझता है
लगा के सीने से कोई अपना ही तड़पता है
भर देता है खुशीयाँ और स्नेह अपार
जब फँसती है नैया बीच मझधार
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